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इश्क का सप्ताह शुरु हो गया है और जागरण जंक्शन पर तो जैसे इश्क का भूत सवार हो गया है. लोगों को प्यार के अलावा और कुछ दिखाई ही नहीं दे रहा. हमने सोचा हम भी प्यार की आग बढ़ाएंगे और सबको दिखा देंगे कि ओल्ड इज गोल्ड होता है. समझे कि नहीं समझे. हम किसलिए है फिर. देखिए प्यार की नई-नई परिभाषाएं तो सब दे रहे हैं लेकिन कई सालों पहले मिर्ज़ा गालिब ने भी प्यार की राह में चंद शेर लिखे थे जो वाकई प्रेम-रस में सराबोर थे. आप भी आज मजा लीजिए इन शायरी और गजलों का:
रोने से और इश्क़ में बेबाक हो गए
धोए गए हम ऐसे कि बस पाक हो गए ॥
सर्फ़-ए-बहा-ए-मै हुए आलात-ए-मैकशी
थे ये ही दो हिसाब सो यों पाक हो गए ॥
रुसवा-ए-दहर गो हुए आवार्गी से तुम
बारे तबीयतों के तो चालाक हो गए ॥
कहता है कौन नाला-ए-बुलबुल को बेअसर
पर्दे में गुल के लाख जिगर चाक हो गए ॥
पूछे है क्या वजूद-ओ-अदम अहल-ए-शौक़ का
आप अपनी आग से ख़स-ओ-ख़ाशाक हो गए ॥
करने गये थे उस से तग़ाफ़ुल का हम गिला
की एक् ही निगाह कि बस ख़ाक हो गए ॥
इस रंग से उठाई कल उस ने ‘असद’ की नाश
दुश्मन भी जिस को देख के ग़मनाक हो गए ॥
वैसे यह तो गालिब की शायरी का एक पहलू है और अगर इसका नया वर्जन देखना है तो वीडियो देखिए. नए वर्जन से मतलब है गालिब की गजलों की रीमिक्स.. देखिए और मजा लीजिए.
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